गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त बालक भक्त बालकहनुमानप्रसाद पोद्दार
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भगवान् की महिमा का वर्णन...
चन्द्रहास
द्वापरयुगका इतिहास है। केरल-देशमें मेधावी नामक एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे, उनके एकमात्र पुत्रका नाम था चन्द्रहास। चन्द्रहासकी उम्र जब बहुत ही छोटी थी, तभी शत्रुओंने केरलपतिको युद्धमें मार डाला। चन्द्रहास-जननी पतिव्रता रानी सती हो गयी। राज्यपर दूसरोंने अधिकार कर लिया। इस विपत्तिकालमें चन्द्रहासकी धाय उसे लेकर चुपके-से नगरसे निकल गयी और कुन्तलपुर जाकर रहने लगी। स्वामिभक्ता धायने तीन वर्षकी उम्रतक मिहनत-मजदूरी करके चन्द्रहासका पुत्रवत्। पालन किया, तदनन्तर वह भी कालका ग्रास बन गयी।
चन्द्रहास अनाथ और निराश्रय हो गया, परंतु अनाथनाथ भगवान् निराधारका आधार है। वह विश्वम्भर सबका पेट भरता है। भगवत्कृपावश चन्द्रहासका पालन नगरकी स्त्रियोंद्वारा होने लगा। उसके मनोहर मुखमण्डलने सबके मन हर लिये। जो स्त्री उसे देखती, वही उसे पुत्रवत् प्यार करती, खिलाती-पिलाती और पहननेको वस्त्र देती। एक दिन देवर्षि नारद घूमते-घामते उधर आ निकले। बालकको योग्य अधिकारी जान उसे श्रीशालग्रामजीकी एक मूर्ति और ‘रामनाम' मन्त्र दे गये। शुद्ध-हृदय शिशु बड़े प्रेमसे मूर्तिकी पूजा और हरि-नाम-कीर्तन करने लगा। शिशु-अवस्था, सुन्दर वदन, सुहावनी सरस वाणी और श्रीहरि-नाम-गान–सभी साज मनहरण करनेवाले थे। इससे चन्द्रहासको जो देखता वही मुग्ध हो जाता। वह इसी अवस्थामें परम धार्मिक और अनन्य हरिभक्त हो गया। जब वह अपने शरीरकी सुधि भूलकर मधुर तानसे हरि-नाम-गान करता तब उसके चारों ओर एक दिव्य चाँदनी छिटक जाती। उस समय चन्द्रहास देखता मानो एक जन-मनमोहन श्यामवदन बालक मुरली हाथमें लिये उसीके साथ नाच और गा रहा है। उसके प्राणमोहन सुरोंको सुनकर चन्द्रहासकी तन्मयता और भी बढ़ जाती।
कुन्तलपुरके राजा बड़े पुण्यात्मा थे, परंतु उनके कोई पुत्र न था। केवल एक रूप-गुणवती कन्या थी, जिसका नाम था चम्पकमालिनी। राजगुरु महर्षि गालवके उपदेशानुसार राजा अपना सारा समय केवल भजन-स्मरण-सत्सङ्गमें ही लगाते थे। राज्यका सम्पूर्ण कार्यभार धृष्टबुद्धि नामक मन्त्रीपर था। कुन्तलपुरका राज्य एक तरहसे वह मन्त्री ही करता था। उसके अलग भी बड़ी जमींदारी थी, धन-सम्पत्तिका पार नहीं था। धृष्टबुद्धिके मदन और अमल नामक दो सुयोग्य पुत्र और विषया नामकी एक सुन्दरी कन्या थी। मदन और अमल राज्यकार्यमें पिताकी यथेष्ट सहायता करते। इनमें मदन श्रीकृष्णभक्त और उदारचरित था, जिससे मन्त्रीके महलों में जहाँ विलासके राग-रंगका प्रवाह बहता था, वहाँ कभी-कभी संत-समागम, अतिथि-सत्कार और भगवन्नामकीर्तन भी हुआ करता था। यद्यपि धृष्टबुद्धिको इन कामों से कोई प्रेम नहीं था, वह रात-दिन राजकार्य और धनसंचयमें ही लगा रहता था, परंतु सुयोग्य पुत्र मदनको स्नेहवश इन कामोंसे रोकता भी नहीं था।
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